बीता हफ़्ता कई वजहों से चर्चा में रहा. चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा की जिसके साथ ही नेताओं की बयानबाजी का दौर शुरू हो गया. इस हफ़्ते की कुछ प्रमुख घटनाओं मसलन कर्नाटक के बीजेपी नेता अनंत कुमार हेगड़े का राहुल गांधी और उनके परिवार पर आपत्तिजनक टिप्पणी करना, हिंदुस्तान यूनीलीवर के उत्पाद ‘सर्फ़ एक्सेल’ के होली से जुड़े एक विज्ञापन पर उठा विवाद, अदालत की अवमानना के आरोप के चलते शिलॉन्ग टाइम्स की एडिटर पैट्रीशिया मुखीम पर मेघालय हाईकोर्ट द्वारा लगाया गया जुर्माना और जुर्माने की अदायगी में असफल रहने पर 6 महीने की जेल के साथ अख़बार बंद करने का आदेश, आदि विषय इस बार की चर्चा में शामिल रहे.चर्चा में इस बार पत्रकार राहुल कोटियाल ने बतौर मेहमान शिरकत की. साथ ही न्यूज़लॉन्ड्री के स्तंभकार आनंद वर्धन व लेखक-पत्रकार अनिल यादव भी चर्चा में शामिल रहे. चर्चा का संचालन न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.चर्चा की शुरुआत करते हुए अतुल ने कहा कि हमारे समाज या समय में हर चीज़ के साथ विवाद जुड़ जाने की एक परंपरा विकसित हो गई है और अब किसी भी चीज़ का विवादों के साए में चले जाना आम सी बात हो गई है. चुनाव की तारीख़ों के ऐलान के बाद रमज़ान के महीने में चुनाव होने और चुनाव की तारीख़ों व फेज़ को लेकर भी विवाद हो गया. राजनीतिक गलियारों में लगाई जा रही इन अटकलों का ज़िक्र करते हुए कि चुनाव की तारीख़ें बीजेपी के मुफ़ीद हैं, अतुल ने सवाल किया कि इस विवाद को कैसे देखा जाए? क्या इसमें विपक्ष को किसी भी तरह का डिसएडवांटेज है?जवाब देते हुए अनिल ने कहा, “ये चुनाव काफ़ी अविश्वास के माहौल में हो रहे हैं. एक संभावना यह भी थी कि क्या पता चुनाव हों ही न. सर्जिकल स्ट्राइक के बाद ये अटकलें लगाई गईं कि हो सकता है प्रधानमंत्री मोदी आपातकाल लागू करने के लिए इस अवसर का इस्तेमाल करें और चुनाव आगे चलकर तब कराएं जब परिस्थितियां उनके पक्ष में हो जाएं दूसरा एक बहुत बड़ी आशंका पिछले पांच सालों में हवा में रही है कि ईवीएम के ज़रिए चुनाव में गड़बड़ी की जाती है. तो एक तरह से सरकार और चुनाव आयोग के प्रति पिछले पांच सालों में एक अविश्वास का माहौल हवा में रहा है और उसी पृष्ठभूमि में ये चुनाव हो रहे हैं. तो जहां असुरक्षा होती है, अविश्वास होता है, हर चीज़ के दूसरे अर्थ निकाले जाते हैं. और मुझे यह लगता है कि चुनाव का कई फेज़ में होना किसी के भी पक्ष जा सकता है. सिर्फ भाजपा को ही इसका फायदा मिलेगा, यह सोचना ठीक नहीं है.”विवाद लाज़मी था या ग़ैरज़रूरी? इस सवाल का जवाब देते हुए आनंद कहते हैं, “हम लोग अतिविश्लेषण युग में रह रहे हैं, हर चीज़ का विश्लेषण बहुत अधिक होता है, और अतिविश्लेषण के बाद कुछ न कुछ तो निष्कर्ष निकलता ही है. या निष्कर्ष तय करके फिर विश्लेषण कर लिया जा रहा है. यह दोनों ही चीज़ें हो रही हैं.” आनंद ने इसी में आगे जोड़ते हुए कहा कि अगर इस तरह कि अटकलें इवीएम के स्तर पर हैं तो फिर चुनाव की तारीख़ें और चरण क्या हैं उस आरोप का कुछ ख़ास मतलब नहीं रह जाता.नवीन पटनायक द्वारा 33% और ममता बनर्जी द्वारा 35% टिकट महिलाओं को दिया जाना क्या बाकी दलों पर एक दबाव की तरह काम करेगा? महिला आरक्षण का कानून पास हुए बिना ही राजनीतिक दल इस तरह के सकारात्मक बदलाव करने के लिए मजबूर हैं? इस सवाल के जवाब में राहुल कहते हैं, “बिल्कुल! पहली ही नज़र में यह बहुत सकारात्मक कदम लगता है. अब बीजेपी-कांग्रेस जैसे दलों में फैसले आलाकमान की तरफ से लिए जाते हैं. टिकटों का निर्धारण वहीं से होता है. ऐसे में इन पार्टियों के लिए टिकट बंटवारे में 33% सीटें महिलाओं के देने की बात करना मुश्किलों भरा हो जाएगा क्योंकि तब इन्हें कैंडिडेट ढूंढ़ने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ेगी.”इसी क्रम में बाकी विषयों पर भी बेहद गंभीर व दिलचस्प चर्चा हुई. बाकी विषयों पर पैनल की विस्तृत राय जानने-समझने के लिए पूरी चर्चा सुनें.
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